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क्योंकि मेरे देश की आत्मा मुझमें बसती है…

25-05-2020
कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में आज हर कोई असुरक्षित महसूस कर रहा है। लोगों को घर में ही स्वयं को कैद होने और अपनों से दूर रहने को विवश होना पड़ा है। ऐसी परिस्थिति में देश का एक तबका गांव की ओर पलायन कर रहा है या यूं कहें वह अपनी जन्मभूमि से जुड़ रहा है। इसी परिदृश्य को दर्शाती गांव की आत्मकथा….
जीवन की पाठशाला में जब तुमने ककहरा सीखना शुरू किया और पहले दिन पाठशाला गए तो वह पल मेरी स्मृति में चिर स्थाई हो गया। फिर मैंने एक सपना बुन लिया कि मेरा लाल अब मेरी ही छांव में रहकर मेरे दूसरे बच्चों के जीवन को सुखी-संपन्न बनाने में हाथ बटाएगा। इस मिट्टी में ही शहरों जैसे स्कूल, कॉलेज का विकास कर भावी पीढ़ी के जीवन में शिक्षा का उजियारा लाएगा। पढ़ाई के स्तर को ऊंचा उठाकर मेरे दूसरे बच्चों को साक्षर बनाएगा। शाम को घंटी की टन-टन की आवाज गूंजती तो तुम्हारे साथ मेरा भी मन खिल जाता। तुम्हारा पाठशाला से दौड़कर घर आना और मां की गोद में लिपट जाना… ऐसा लगता जैसे मैं फिर से बच्चा हो गया हूं। शाम को जब तुम दोस्तों संग खेलते तो मैं भी साथ देता। पर एक अदद खेल मैदान की कमी मेरे मन में सूई की तरह चुभ जाती। रात होते ही जब तुम मां की गोद में सो जाते तो सन्नाटे और घनघोर अंधेरे के बीच मेंढक की टिरटिर की आवाज को संगीत की तरह महसूस कर सुबह होने का इंतजार करता। पूरी रात इस आस में निकल जाती कि कभी न कभी रात के इस घोर अंधेरे को मेरा लाल जगमग करेगा। सुबह होती और नई उम्मीद, नई आस और उमंग के साथ तुम्हारे लालन-पालन, सभ्यता और संस्कृति का पाठ पढ़ाने में कब दिन बीत जाता पता ही नहीं चलता। वक्त का पहिया ऐसे ही गुजरता गया। तुम भी समय के साथ किशोर और युवा होते गए। जब इंटर करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए तुम शहर गए तो मैं इस इंतजार में एक-एक पल गुजारता कि जल्द मेरा लाल पढ़-लिखकर आएगा और मेरे अरमानों को पूरा करेगा। दिन बीतते गए। बीच-बीच में दो-चार दिन के लिए तुम आते और अपने दोस्तों संग बचपन को याद करते तो संग-संग मैं भी अतीत के पन्नों को उलट लेता। जिस दिन तुम्हारे जाने का दिन आता तो मन उदास हो उठता। ऐसा लगता कि मानो बिटिया को विदा कर रहे हैं। लेकिन कल की आस में सबकुछ भुलाकर खुद को संभाल लेता। समय गुजरता जा रहा था। पहले तो तुम दशहरा- दीवाली, होली, राखी पर आ भी जाते थे पर अब तो वह दिन भी अतीत के पन्ने हो गए।
तुमने कितनी आसानी से अपने बचपन और मिट्टी को भुला दिया। मुझे इस लायक भी नहीं समझा कि नव जीवन में प्रवेश (विवाह) के मौके पर मुझे शरीक कर लेते। मेरा आंगन सूखी आंखें लिए तुम्हारी राह तकता रहा। तुम शहर की चकाचौंध, ऐशोआराम, फैशन और सुख-सुविधाएं में इतने मशगूल हो गए कि सबकुछ भुला दिया। खैर, मैंने यह सोचकर खुद को समझा लिया कि शायद मेरी ही परवरिश में कोई कमी रह गई होगी। पर मेरा क्या… आज भी कई पीढिय़ों पहले की तरह गलियों में बहती गंदगी, अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाता विद्या का मंदिर, बेरोजगार होते जा रहे मेरे लाल को देखकर मैं असमय ही बुढ़ा होता जा रहा हूं। एक अस्पताल की बांट आज भी तक रहा हूं। मेरे कलेजे के टुकड़े, मेरे सपूत, मेरा साथ देने वाले किसान और मजदूर आज भी बदहाली की जिंदगी जी रहे हैं। मेरे सपूत बेटे किसान और मजदूर का तुमने ही शहर जाकर सबसे ज्यादा मजाक बनाया। उसे अनपढ़, गंवार कहकर शर्मिंदा करते रहे।
कई सरकारें आईं, वादें भी खूब दिखाए, पंचवर्षीय योजनाएं भी बनीं पर गोकुल ग्राम का संकल्प दिवा स्वप्न बनकर रह गया। न खेती लाभ का धंधा बन सकी और न किसान की तस्वीर बदल सकी।
आज कोरोना के रूप में आपदा की घड़ी आई है। ऐसे में जिंदगी जीने के लिए जिन्होंने शहरों की ओर रुख कर लिया था, आज जिंदगी बचाने के लिए जन्मभूमि की ओर दौड़ रहे हैं। मेरा दिल हमेशा मेरे लाल के लिए खुला है। मैं इतना भरोसा दिलाता हूं कि मेरी शरण में आने वाले मेरे लाल कभी भूखे पेट नहीं सो सकते हैं। मेरा काम है देना..सदा देना और देते ही रहना। सादगी, सच्चाई, सफाई, सभ्यता, संस्कृति और संस्कार मेरी पहचान थे, हैं और सदा रहेंगे, क्योंकि मेरे देश की आत्मा मुझमें बसती है….।(यह लेखक के अपने विचार हैं)
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