हाइलाइट्स –
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दादी जी के 14 वीं पुण्य तिथि के अवसर पर विशेष प्रकाशन
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मुझे 16 साल की आयु से ही दादीजी के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ
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40 वर्षों तक दादी के अंग-संग रही, इस दौरान मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला
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दादीजी ने मुझे हर छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कार्य करना सिखाया
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दादी जी की तीन बातें हमेशा याद रहती है – निमित्त, निर्मान और निर्मल वाणी
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दादी सदा कहती थी – कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो और सोचकर बोलो
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हरेक को रिगार्ड देना, ये हमने दादीजी से सीखा
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आज भी दादी जी अपने साथ का और अपने प्यार का अनुभव करा रही हैं
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दादीजी मेरे दिल की धड़कन है, सदा मेरे साथ है और सदा साथ रहेंगी
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(यह लेख बीके मुन्नी दीदी जो कि वर्तमान समय संस्था की सह-मुख्य प्रशासिका हैं, की स्मृतियों पर आधारित है।)
नवयुग टाइम्स, संवादाता
”आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं
मेरा सुना पड़ा रे संगीत मेरा सुना पड़ा रे संगीत
तुझे मेरे गीत बुलाते हैं….।”
गीत की इन मधुर पंक्तियों को गुनगुनाते हुए दादी प्रकाशमणि के साथ बिताए हुए जीवन के अनमोल लम्हों को पलकों में सहेजते ही मुन्नी दीदी का मुखमंडल, एक अलग प्रकार की आभा से चमकने लगता है। वे आगे कहती हैं कि अब तो हमारे पास दादी की सिर्फ यादें ही शेष है। मैंने जीवन में उनसे बहुत कुछ पाया है। आज मैं जो भी हूँ उनकी ही बदौलत हूँ। आगे वह याद करते हुए कहती हैं –
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दादीजी ने सबके साथ प्यार से रहना सिखाया…
मैं सोलह वर्ष की आयु में ही मधुबन आ गई थी। और यह हमारा बहुत बड़ा सौभाग्य था कि मुझे दादी प्रकाशमणि जी के पास रहने का अवसर मिला। मैं 40 साल तक दादी के अंग-संग रही। इन वर्षों में दादीजी से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। मैं दादी जी के साथ हमेशा कदम से कदम, कंधे से कंधा मिलाकर चलती रही। दादीजी ने मुझे हर छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कार्य करना सहजता से सिखाया। दादीजी ने मुझे सबसे पहले बाबा का आज्ञाकारी, वफादार, ईमानदार, फेथफुल, सच्चाई, सफाई और सबके साथ प्यार से रहना सिखाया। इन सात बातों को मैंने अपने जीवन का महामंत्र बना लिया।
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दादीजी हर रोज कुछ न कुछ नया करती थी…
दादीजी सदा उमंग-उत्साह में रहने वाली विलक्षण प्रतिभा की धनी थी। वे हर रोज कुछ न कुछ नया करती थी। दादीजी के पास सदा `हाँ जी’ का महामंत्र था। कोई भी कार्य करना हो तो हम दादी जी से पूछते थे, दादी हम मेला करें, प्रदर्शनी करें, सेंटर खोलें, म्यूजियम बनाएं, तो दादीजी हर बात के लिए उमंग-उत्साह दिलाती और कहती – हाँ करो। कुछ चाहिए तो दादीजी को याद करना। हरेक का दिल लेना, हरेक को दिल से लगाना, हरेक की बात सुनना और हरेक को आगे बढ़ाना। दादी की यह बहुत बड़ी विशेषता थी।
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दादी ने हरेक को लीडर बनाया…
हमने कभी भी दादीजी को किसी की कमियां निकालते हुए नहीं देखा। सदा वह सर्व के गुणों को ही देखती थी और उसी आधार से सबको आगे बढ़ाती थी। हम कोई गलती करके आते थे तो कभी भी दादी ने गुस्सा नहीं किया, जोर से नहीं बोला। वो बहुत प्यार से कहती थी – मुन्नी ये काम ऐसे नहीं, ऐसे करना होता है। उनके उस प्यार में हम सदा समाए रहते थे। मैं तो निरंतर ऐसा ही अनुभव करती थी जैसे मेरे ऊपर दादीजी के प्यार की वर्षा हो रही है। उनकी प्यार भरी दृष्टि जैसे दिल को पिघला देती थी। जिससे कार्य करने का और ही उमंग-उत्साह आ जाता था। आज बाबा (परमात्मा) का महायज्ञ दिन-दुनी, रात चौगुनी उन्नति कर रहा है और इतना आगे बढ़ रहा है उसका कारण यही है। दादीजी ने हरेक के ऊपर फेथ रखा। हरेक को जिम्मेवारी देकर कार्य कराया। हमारी जो इतनी बहनें हैं दादीजी ने कभी किसी पर ऑर्डर नहीं किया। हरेक को लीडर बनाया।
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हम पूछते थे…
दादीजी को बाबा के ऊपर बहुत ही निश्चय और विश्वास था। उनके दिल और दिमाग में बाबा बसता था। दादी हर कार्य में बाबा को आगे रखती थी। दादी जी कभी किसी भी कार्य के लिए टेंशन नहीं करते थे। हम दादीजी से पूछते थे दादीजी आपको टेंशन नहीं होता है तो दादी कहती थी मैं क्यों टेंशन करूं, करनकरावहार बाबा बैठा है। वो अपना कार्य करा रहा है। दादी जी सदा लाइट रहती थी और सबको लाइट करती थी। कोई भी दादीजी के सामने जाता था तो दादीजी उसको इतना प्यार करती थी। और उसकी बात को बहुत ही प्यार से सुनती थी और उसको एकदम लाइट करके समाधान देकर भेज देती थीं।
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दादी जी ने सिखाया…
दादीजी की तीन बातें मुझे हमेशा याद रहती है, रोज अमृतवेले मैं इसे रिपीट कर लेती हूँ। निमित्त, निर्मान और निर्मल वाणी। सदा हरेक को निमित्त समझकर चलना चाहिए। करनकरावहार तो बाबा है। कोई अहम नहीं कोई अहंकार नहीं। जैसे दादीजी में नहीं था वैसे हमारे में भी न हो। छोटा हो या बड़ा हो हरेक को रिगार्ड देना है। ये हमने दादीजी से सीखा है। सदा झुककर चलना है, सबसे प्यार से चलना है। और अपनी वाणी बहुत मधुर और मीठी रखनी है। दादीजी ने सिखाया है कम बोलो-मीठा बोलो, धीरे बोलो, सोचकर बोलो। हमने अपने जीवन में ये तीनों धारणायें पक्की की हुई है।
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दादीजी की अनुभूति आज भी होती है…
हमने उस महान हस्ती से बहुत कुछ पाया है। दादी सदा कहती थी कभी किसी को दुःख नहीं देना, कभी किसी का दिल नहीं दुखाना, सदा सबको सुख देना। सदा सबको दिल की दुआएं देनी है और सबसे दिल की दुआएं लेनी है। सदा सन्तुष्ट रहना है और सबको संतुष्ट करना है। आज भी दादी जी हमें अपने साथ का, अपने प्यार का अनुभव सूक्ष्म रूप से करा रही हैं।
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मन में सदा यही संकल्प रहता है…
दादी के अव्यक्त होने के बाद आज भी हमें वो समय याद आता है जब मैं कहती थी कि दादीजी अब हमें कौन संभालेगा। दादीजी कहती थी `मैं हूं ना’। मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ। सदा मधुबन में हूँ। सदा दादी कॉटेज में हूँ। आज भी हम यह अनुभव करते हैं दादी हमारे साथ है, दादी कॉटेज में है। हमारे दिल में है। कोई भी बात होती है हम सूक्ष्म में उनसे पूछते हैं। हमें उनकी गाइडलाइन मिलती है। उसी अनुसार हम चलते हैं। आज भी हर कार्य हम उनसे ओके कराकर ही चलते हैं। मन में यही संकल्प रहता है – जो दादीजी ने किया वो मैं करूंगी, कर रही हूं, और करूंगी भी। सदा उनके दिखाये हुए मार्ग पर कदम पर कदम रखके चलती रहूंगी।